पातियां

कुछ अधूरी पातियां,
आज फिर से पड़ीं हैं
सामने मेरे
जो मैनें लिखीं थीं कभी
किसी के नाम
शब्दों को सजाया था
बड़े जतन से
किसी को अपना जानकर
पर कुछ पंक्तियाँ लिखने के बाद
छोड़ दिया था यूं ही|

समय तब से आज तक
कई बरस गुज़ार चुका है,
आज अचानक स्मृतियों ने
आवाज़
दी है मुझे
और मैं सामने हूँ
उन्हीं अधूरी पातियों के|
उन्हें अब भी आस है शायद
कि  उनकी मंज़िल आयेगी ,
पर मैं जानता हूँ
टूटे सपनों का कोई
अर्थ नहीं होता|
ये सपने बस रह जाते हैं
हृदय में ,
और कभी-कभी
अपने मौजूद होने का
दिलाते हैं एहसास
उन्हीं पातियों की तरह|